रांची :झारखंड के आदिवआज विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर सीएम हेमंत सोरेन कहा कि मैं देश के 13 करोड़ से ज्यादा आदिवासियों भाइयों-बहनों से एक होकर लड़ने एवं बढ़ने का अपील करता हूँ।
गौरतलब की गोंड, मुंडा, भील, कुकी, मीणा, संथाल, असुर, उराँव, चेरो आदि सभी को एकजुट होकर सोचना होगा। आज देश का आदिवासी समाज बिखरा हुआ है। हम जाति-धर्म-क्षेत्र के आधार पर बंटे हुए हैं। जबकि सबकी संस्कृति एक है। खून एक है, तो समाज भी एक होना चाहिए। हमारा लक्ष्य भी एक होना चाहिए। हमारी समस्या का बनावट लगभग एक जैसा है, तो हमारी लड़ाई भी एक होनी चाहिए। लगभग सभी हिस्सों में आदिवासी समाज को विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा है एवं केंद्र तथा राज्य में सरकार चाहे किन्हीं की हो आदिवासी समाज के दर्द को कम करने के लिए कभी समुचित प्रयास नहीं किये गये । हमारी व्यवस्था कितनी निर्दयी है ? कभी यह पता लगाने का काम भी नहीं किया कि कहाँ गए खदानों, डैमों, कारखानों के द्वारा विस्थापित किये गए लोग ? खदानों / उद्योगों / डैमों से विस्थापित हुए, बेघर हुए लोगों में से 80 प्रतिशत आदिवासी हैं। काट दिया गया लाखों लोगों को अपनी भाषा से, अपनी संस्कृति से, अपनी जड़ों से। कल का किसान आज वहाँ साइकिल पर कोयला बेचने को मजबूर है। बड़े-बड़े शहरों में जाकर बर्तन धोने, बच्चे पालने या ईंट भट्ठों में बंधुआ मजदूरी करने के लिए विवश किया गया है। बिना पुनर्वास किये एक्ट बनाकर लाखों एकड़ जमीन कोयला कम्पनियों को दिया गया। हमारा झरिया शहर बरसों से आग की भट्ठी पर तप रहा है लेकिन कोयला कम्पनियां एवं केंद्र कान में तेल डालकर सोयी हुई है ,आखिर इस विकास को आदिवासी समाज कैसे अपना मान सकता है ? आखिर विकास की चपेट में किनकी जमीन गयी है ? किनकी रोजी-रोटी छीनी गई है ? किनकी भाषा खत्म हो रही है ? किनकी संस्कृति खतरे में है ? क्या इसका जायजा सत्ता को नहीं लेना चाहिए था ? जो विकसित हुए हैं वे कौन हैं ?तथाकथित मुख्यधारा के इतिहासकारों ने भी आदिवासियों के साथ बेईमानी की है। उन्होंने उनका इतिहास ही दर्ज नहीं किया और न ही देश के विकास में आदिवासियों के योगदान को चिन्हित किया गया। चाहे अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध हो या महाजनों के जुल्म के खिलाफ संघर्ष या फांसी पर लटकने की हिम्मत हो या अंतिम आदमी के रूप में लड़ते हुए मर जाने का साहस, इनमें अगुआई के बावजूद इतिहासकारों ने हमारे पूर्वजों को जगह नहीं दी ।आज देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासियों की अनेक भाषाएँ गायब हो चुकी हैं या गायब होने के कगार पर है। आज हमारे जीवन को आस्था के केन्द्रों से बाँधने का प्रयास किया जा रहा है।लोग तो हमसे हमारा नाम तक छीनने में लगे हुए हैं। हम आदिवासी / मूल निवासी हैं पर विचित्र बात है ! जिस समाज की कोई जाति नहीं उसे कोई ‘जनजाति’ कह रहा है तो कोई वनवासी कहकर एक ढंग से चिढ़ा रहा है। आज जब आदिवासी अपनी पहचान के लिए इतिहास में की गयी उपेक्षा के विरुद्ध बोलने का प्रयास कर रहा है तो उसे चुप कराने का प्रयास हो रहा है। भले ही आदिवासियों में अनेक क्रांतिकारी वीर, विद्वान्, चिन्तक हुए हैं, लेकिन समाज के मुख्य धारा के द्वारा हमेशा प्रयास किया गया है कि हमारी कोई औकात नहीं बन सके एवं नीति-निर्धारण में हमारी कोई भूमिका नहीं रह सके।हमें टुकड़ों में बांटकर देखने का प्रयास किया गया
जब हम आदिवासी संस्कृति, आदिवासी समाज के इतिहास को जानने का प्रयास करते हैं, तो 1800 ई. के पूर्व का ज्यादा जिक्र नहीं मिलता है। जब हमारे बारे में लिखना प्रारंभ किया गया तब भी हमें केवल क्रान्ति की श्रृंखला का नेतृत्वकर्ता मान लिया। हमें टुकड़ों में बाँट कर देखने का प्रयास हुआ। जबकि इतिहास के हर दौर में आदिवासी समाज अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करवाते रहा है। हमारे पूर्वजों ने गणतंत्र की स्थापना की, राज्य निर्माण किया, लोक कल्याणकारी शासक वंशों की स्थापना की। इन परिस्थितियों में यह कहना गलत नहीं होगा कि इस देश की सभ्यता-संस्कृति को गढ़ने में आदिवासी समाज के योगदान की पुनः व्याख्या की जाए। हमें आदिवासी समाज को आदिवासी विचारक, लेखक, विद्वान् की नजरों से देखने की जरूरत है। यह सच है कि आज भी देश का सबसे गरीब, अशिक्षित, प्रताड़ित, विस्थापित एवं शोषित वर्ग, आदिवासी वर्ग है । परन्तु, यह भी सच है कि हम एक महान सभ्यता के वारिस हैं, हमारे पास विश्व एवं मानव समाज को देने के लिए बहुत कुछ है। जरूरत है कि नीति निर्माताओं के पास दृष्टि हो । क्या यह दुर्भाग्य नहीं है कि जिस अलग भाषा-संस्कृति-धर्म के कारण हमें आदिवासी माना गया ,उसी विविधता को आज के नीति निर्माता मानने के लिए तैयार नहीं हैं ? हम आदिवासियों के लिए अपनी जमीन- अपनी संस्कृति- अपनी भाषा बहुत महत्वपूर्ण है । आदिवासी समुदाय एक स्वाभिमानी समुदाय है, मेहनत करके खाने वाली समुदाय है, ये किसी से भीख नहीं मांगती है। हम भगवान बिरसा, एकलव्य, राणा पूंजा की समुदाय के हैं। हम इस देश के मूल वासी हैं । हमारे पूर्वजों ने ही जंगल बचाया, नदियां बचाई, पहाड़ बचाया है। इस महान आदिवासी संस्कृति को आदर की दृष्टि से देखने की जरूरत है | हमें सिर्फ जंगल में रहने वाले गरीब के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए | जंगल एवं मानव विकास की पूरी कहानी हमारे पूर्वजों के पास है । आज जरुरत है कि एक आम देशवासी के अन्दर आदिवासी समाज के प्रति संवेदना जगाई जाए। जरुरत है आम जन के अन्दर आदिवासी समाज के प्रति सम्मान एवं सहयोग की भावना पैदा करने की । मेरी चाहत है कि विभिन्न आदिवासी समूहों के बीच परस्पर संवाद शुरू हो । आज जो हम विभाजित हैं, असंगठित हैं, यही कारण है कि मणिपुर के आदिवासी उत्पीड़न का विषय झारखण्ड के मुंडा लोगों का विषय नहीं बन पा रहा है। राजस्थान के मीणा भाई के दर्द को मध्य प्रदेश के भील अपना मान कर आगे नहीं आ रहे।किसी ने इसी स्थिति पर ठीक ही लिखा हैजब लड़ाई अस्तित्व की हो,वजूद की होतो सामने आना ही पड़ता है।मिटकर भीअगर कुछ बचाया जा सकने की उम्मीद हो,तो कदम स्वयं आगे बढ़ाना पड़ता है ।उन्होंने कहा कि हमें यह सबों को बताना होगा कि जिस आदिवासी का बोलना ,गाना है एवं चलना नृत्य है , वह जब गुस्साता है तो उसकी जुबान नहीं, उसके तीर और धनुष लिए हाथ चलते हैं। मैं उन सभी लोगों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने हमारे ऊपर विश्वास जताया है। आदिवासी मुख्यमंत्री होने के अपने मायने हैं। झारखण्ड ही नहीं देश के दूसरे हिस्से के आदिवासियों का भी जो प्यार मुझे मिलता है, जो उम्मीद मुझसे है उससे मैं भली-भांति परिचित हूँ ।आइये हम अपनी एकजुटता को आगे बढ़ने का संकल्प लें।