हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस 21 जून को एक पर्व की तरह पूरे विश्व में मनाया जाएगा। इस वर्ष का विषय है योगा फॉर वन अर्थ वन हेल्थ ।
आज पूरा विश्व किसी न किसी आंतरिक एवं बाहरी समस्याओं से जूझ रहा है चाहे आपसी या पड़ोसी देश से युद्ध का मुद्दा हो, मूल निवासी और प्रवासी के बीच की समस्याएं हो,जाति, धर्म, पर्यावरण इत्यादि कई कारण है जो मानव एवं जगत के बीच समस्याएं उत्पन्न कर दी है ।
ऐसे में पृथ्वी को बचाना एवं अपने आप को शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रखना अति आवश्यक है। हर वर्ष योग दिवस न सिर्फ व्यक्तिगत लाभ के लिए मनाया जाता है बल्कि योग का जो सही अर्थ होता है पूरे सृष्टि के बीच एक तादात्म्यता उत्पन्न करना है।
इस दिशा में हम सभी कदम बढ़ते जा रहे हैं।
अयं बन्धुरयंनेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थात- यह व्यक्ति मेरा है, यह व्यक्ति मेरा नही है का भेद संकीर्ण सोच वाले ही करते हैं। उत्तम चरित्र वालों के लिए पूरा विश्व ही परिवार है। ऐसा सोच, उदार हृदय की प्राप्ति योग के द्वारा ही संभव है। ईशावास्योपनिषद् मे ईश्वर की सर्वव्यापकता को बताते हुए कहा गया है कि मनुष्य को लोभ, लालच नहीं करना चाहिए। प्रकृति में उपलब्ध वस्तुओं का उपयोग उतना ही करो जितना जीवन जीने के लिए आवश्यक हो, भोग के लिए नहीं ।
ॐ ईशावास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
अर्थात इस सृष्टि में जो कुछ भी है सब ईश द्वारा दिया गया है ,और उसके अधिकार में है। केवल उनके द्वारा दिए गए का उपयोग करो, लालच मत करो, लोभ मत करो।
जीवन ईश्वर का उपहार है यानी जीवन और जगत ( पृथ्वी ) को ईश्वर का आवास समझकर उनके द्वारा दिए गए संपदाओं का समझदारी पूर्वक उपयोग करो। कामनाओं की पूर्ति के लिए जगत के चीजों का अत्यधिक उपयोग करना न सिर्फ अपना विनाश का कारण होता है बल्कि पृथ्वी का भी संतुलन बिगड़ता है, जिस कारण कई प्रकार के शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक समस्याऐ उत्पन्न होने लगते हैं।
पृथ्वी जो पांच तत्वों से बना है- भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश ।
इसे पंचमहाभूत भी कहते हैं जो सृष्टि के निर्माण की मूल आधारशिला है। इनके बीच तालमेल, समरसता रखना अति आवश्यक है। आज इस आधुनिक समय में जो भी वातावरण, स्वास्थ्य संबंधित समस्याऐ उत्पन्न हो रहे हैं इसका कारण पृथ्वी द्वारा दिए गए संसाधनों का गलत उपयोग ही है। मानव शरीर भी इन्हीं पंचमहाभूतो का बना होता है। पृथ्वी के वातावरण का असंतुलन मानव शरीर को भी प्रभावित करता है। स्थूल शरीर जिनका निर्माण अस्थि एवं मांसपेशियों द्वारा बना होता है, जिसके पोषण के लिए भूमि द्वारा उपजाए हुए अन्न का उपयोग हम सभी करते हैं। आजकल विभिन्न प्रकार के कीटनाशक दवाइयों से फसल तो प्रभावित होता ही है साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होती है, जिसका प्रभाव मानव शरीर पर पड़ता है।
हमारे शरीर में लगभग 70 से 80% जल होता है, जिसे रखरखाव के लिए प्राकृतिक जल पर निर्भरता रहती है चाहे वह पेयजल के रूप में हो या फल सब्जियों के द्वारा। प्रकृति द्वारा प्रदत इस जल को शुद्ध एवं पवित्र रखना चाहिए। जल प्रदूषण बहुत बड़ा कारण है परिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन उत्पन्न करने में। अग्नि तत्व मानव शरीर में पाचन एवं ऊर्जा के लिए जिम्मेदार है।अग्नि तत्व हमारे शरीर के अंदर के विकार, अशुद्धियों को भी खत्म करता है।
सूर्य जो ऊर्जा का स्रोत है जिस पर वन्य, जीवजंतु निर्भर है। पृथ्वी का तापमान में संतुलन बना रहे हैं ताकि इस पर प्राणी वन, जीव – जंतु जीवित रहे, परंतु ऐसा नहीं है दिन प्रतिदिन तापमान बढ़ता ही जा रहा है, मौसम में भी बदलाव हो रहे हैं। सभी चीजे व्यवस्थित हो सकती हैं, अगर चीजों का उपयोग सही से करें तो ओजोन स्तर को बचा सकते हैं। वायु तत्व जिसे जीवनीशक्ति के रूप में शरीर के अंदर श्वास के रूप द्वारा हम ग्रहण करते हैं। अत: स्वच्छ वायु अति आवश्यक है सभी के लिए। प्रदूषित वायु कई गंभीर समस्याऐ उत्पन्न कर सकती है। अपनी सुविधाओं के लिए अत्यधिक आरामदायक जीवन के लिए जिन चीजों का हम इस्तेमाल करते हैं जिससे वातावरण का वायु दूषित होता है, उसका बहिष्कार करना चाहिए। आकाश तत्व जो अनंनता एवं सूक्ष्मता से संबंधित है, यह सबसे पहला महाभूत है जिससे सभी तत्व उत्पन्न हुए हैं। इस तत्व को जानने समझने के लिए जीवन में आध्यात्मिकता की आवश्यकता है, जिसे योग के द्वारा जाना जा सकता है। यौगिक अभ्यास स्थूल से कारण तक मानव चेतना को ले जाता है जहाँ ब्रह्मांडीय चेतना से एकाकार होता है। इस एकाकार को आत्मा से परमात्मा से मिलन भी कहते हैं। इस ऊंचाई तक जाने के लिए संपूर्ण शरीर एवं जगत को जानना एवं समझना पड़ेगा। इस दुर्लभ मानव शरीर एवं पृथ्वी का अनादर करने की चेष्टा परम तत्व के प्रति विद्रोह दर्शाता है। मनुष्य के अंदर असीम आध्यात्मिक शक्तियां निहित है, जिसे जागृत करने में प्रकृति की आवश्यकता पड़ती है। अपने स्व मे स्थापित रहने के लिए पृथ्वी का संरक्षण आवश्यक है।
तभी हम शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक रूप से पूर्ण हो सकते हैं।