चाईबासा : पश्चिमी सिंहभूम का स्वास्थ्य विभाग इन दिनों पूरे राज्य में अपनी कार्यशैली को लेकर चर्चित और बदनाम हो रहा है। स्वास्थ्य विभाग के कार्य शैली मानवता को शर्मसार करने में लगी है। वहीं मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री के समाज के अंतिम व्यक्ति तक स्वास्थ्य सुविधा पहुंचाने के दावे की पोल खोल रही है। स्वास्थ्य मंत्री के दावो की हवा निकल रही है। बीते दिनों चाईबासा में दर्जन भर बच्चों को एचआईवी संक्रमित ब्लड चढ़ाए जाने का मामला पूरे राज्य और देश भर में चर्चित हुआ था और जिला बदनाम हुआ था, अब एक नया मामला मानवता को शर्मसार कर देने वाला है । जो मानवता को शर्मसार कर देने वाली एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई है। यह घटना राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था और सरकारी दावों पर गंभीर सवाल खड़े करती है। इलाज के दौरान चार साल के मासूम बच्चे की मौत हो गई, लेकिन उससे भी ज्यादा दर्दनाक तस्वीर तब सामने आई जब एंबुलेंस नहीं मिलने पर बेबस पिता को अपने बच्चे का शव झोले में भरकर पैदल घर लौटना पड़ा।
बताया जा रहा है कि बीमार बच्चे को परिजन इलाज के लिए अस्पताल लेकर पहुंचे थे। काफी कोशिशों के बावजूद बच्चे को बचाया नहीं जा सका। बच्चे की मौत के बाद परिवार ने एंबुलेंस की मांग की, ताकि शव को सम्मानपूर्वक घर ले जाया जा सके, लेकिन घंटों इंतजार के बावजूद एंबुलेंस उपलब्ध नहीं कराई गई। न तो अस्पताल प्रशासन ने कोई वैकल्पिक व्यवस्था की और न ही स्थानीय स्वास्थ्य विभाग की ओर से कोई मदद मिली।
अंततः मजबूर होकर पिता ने अपने चार साल के बेटे के शव को एक झोले में रखा और उसे कंधे पर लादकर पैदल ही घर की ओर निकल पड़ा। रास्ते में यह दृश्य जिसने भी देखा, उसकी आंखें नम हो गईं। यह तस्वीर सोशल मीडिया पर सामने आने के बाद पूरे राज्य में आक्रोश फैल गया है।
राज्य सरकार लगातार बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं और “सबको इलाज” के दावे करती रही है, लेकिन जमीनी सच्चाई इससे बिल्कुल उलट नजर आ रही है। पश्चिमी सिंहभूम जैसे आदिवासी बहुल जिले में आज भी एंबुलेंस जैसी बुनियादी सुविधा का अभाव है। सवाल यह उठता है कि जब राज्य में 108 एंबुलेंस सेवा मौजूद है, तो जरूरतमंदों तक यह सुविधा क्यों नहीं पहुंच पा रही है।
लोगों का कहना है कि यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी कई बार मरीजों और मृतकों के परिजनों को इसी तरह की पीड़ा झेलनी पड़ी है, लेकिन हर बार मामला कुछ दिनों की चर्चा के बाद ठंडे बस्ते में चला जाता है। प्रशासनिक लापरवाही और संवेदनहीनता लगातार आदिवासी इलाकों में लोगों की जान और सम्मान दोनों पर भारी पड़ रही है।
इस घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या झारखंड में गरीब और आदिवासी परिवारों की जिंदगी की कोई कीमत नहीं है? क्या “हेमंत हैं तो हिम्मत है” जैसे नारे सिर्फ पोस्टर और मंच तक ही सीमित हैं?
अब देखना यह है कि इस हृदय विदारक घटना के बाद जिला प्रशासन और राज्य सरकार क्या कोई ठोस कदम उठाती है या फिर यह मामला भी फाइलों में दफन होकर रह जाएगा।
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