रांची:
रांची विमेंस कॉलेज, रांची ने अपनी 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर दिनांक 25-26 मार्च 2025 को “भारतीय ज्ञान परंपरा : भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भाषायी परिदृश्य” विषय पर एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का भव्य आयोजन किया। इस दो दिवसीय संगोष्ठी में भारतीय ज्ञान परंपरा की समृद्धि, उसके सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भाषायी प्रभावों पर बिहार, झारखंड, राजस्थान, उड़िसा, उत्तर प्रदेश, कोलकाता, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र से उपस्थित प्रतिभागियों के द्वारा गहन विमर्श किया गया।
26 मार्च 2025 को समापन सत्र में रांची विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अजीत कुमार सिन्हा और मानविकी संकाय की अध्यक्ष डॉ. अर्चना दुबे ने विशिष्ट अतिथि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उन्होंने भारतीय ज्ञान परंपरा की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि “हमारी परंपराएँ केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि भविष्य के लिए दिशा-निर्देशक भी हैं।”
कॉलेज की प्राचार्या ने अपने भाषण में भारतीय ज्ञान परंपरा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि “यह संगोष्ठी न केवल हमारी बौद्धिक परंपरा को पुनर्जीवित करने का अवसर है, बल्कि यह हमारे समाज एवं शिक्षा प्रणाली में इसकी उपयोगिता को भी रेखांकित करती है।”
संगोष्ठी के दूसरे दिन बीज वक्ता के रूप में कई प्रतिष्ठित विद्वानों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और भारतीय ज्ञान परंपरा पर अपने विचार प्रस्तुत किए:
डॉ. नेत्रा पोडियाल (कियल विश्वविद्यालय, जर्मनी) – उन्होंने भारतीय ज्ञान परंपरा की वैश्विक महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक बौद्धिक परिदृश्य को भी समृद्ध कर रही है।
डॉ. जिंदर सिंह मुंडा (विभागाध्यक्ष, हिंदी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय) – उन्होंने भारतीय भाषाओं की समृद्धि और उनके ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित किया।डॉ. अनिल वीरेंद्र कुल्लू (सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, सूरज सिंह मेमोरियल कॉलेज) – उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति में निहित तत्वों पर चर्चा करते हुए इन्हें आधुनिक विमर्श से जोड़ने की आवश्यकता पर बल दिया।
संगोष्ठी के अन्य प्रमुख वक्ता एवं उनके विचार
डॉ. धुनी सोरेन (इंग्लैंड) – “जनजातीय परंपराएँ और भाषाएँ भारतीय ज्ञान परंपरा का अभिन्न अंग रही हैं, हमें इन्हें संरक्षित करने की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए।”
डॉ. रविभूषण (साहित्यकार एवं आलोचक) – “भारतीय साहित्य और संस्कृति में निहित तत्व, आधुनिक विमर्शों को एक नई दृष्टि प्रदान करने में सक्षम हैं।”
श्री रणेंद्र (साहित्यकार) – “भारतीय भाषाएँ और लोक परंपराएँ समाज में समावेशिता और सहअस्तित्व का संदेश देती हैं।”
डॉ. हरि उरांव (जनजातीय अध्ययन विशेषज्ञ) – “भारतीय ज्ञान परंपरा में जनजातीय समुदायों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। उनका दर्शन, समाज और संस्कृति की जड़ों से जुड़ा है।”
डॉ. स्मृति सिंह (विषय विशेषज्ञ) – “भाषा न केवल संप्रेषण का माध्यम है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक पहचान भी है। हमें अपनी मातृभाषाओं के संरक्षण की दिशा में कार्य करना चाहिए।”
इस अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के सफल आयोजन में रिया दे, डॉ. कुमारी उर्वशी, डॉ. किरण तिवारी, डॉ. किरण कुल्लू, डॉ. रितु घांसी तथा मंच संचालिका डॉ ममता केरकेट्टा एवं पूनम धान सहित अनेक शिक्षकों एवं शोधार्थियों का विशेष योगदान रहा।
कॉलेज की प्राचार्या ने संगोष्ठी के समापन पर सभी शोधकर्ताओं, विद्वानों एवं आयोजकों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि “यह संगोष्ठी भारतीय ज्ञान परंपरा के पुनरुद्धार का एक सशक्त मंच बनेगी और हमारी भाषा, संस्कृति एवं समाज को नई ऊर्जा प्रदान करेगी।”
यह संगोष्ठी भारतीय ज्ञान परंपरा को समकालीन दृष्टि से समझने और इसके भविष्य को लेकर महत्वपूर्ण संवाद की दिशा में एक प्रभावी कदम साबित हुई।
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